बांवरा
मन |||
परिकल्पनों
के पर लिए,
खुद
उड़ना सीख जाता है|
यदि
बांवरा मन को क्षिचित्ज़ भी दीख जाता है,
फ़िर खुली
आँखों से सपने क्यों न देख पाए तू ?
दो कदम
आगे बढ़े चार पीछे आये तू,
ये खुद
से खुद की लड़ाई और कितनी लम्बी चलेगी ?
तेरी डूबती
नैया की केवट कब तू बनेगी ?
देखो
स्वप्न खुली आँखों से ,
चीर
चट्टानों को आगे तू बढ़,
क्षिचित्ज़
न छु सके तो कम से कम देख पायेगी,
उम्मीदों
की गाँठ बांध कर क्षिचित्ज़ को भी छु जाएगी,
खुद की
तू पहचान कर , तू सिंह है, दहाड़ कर,
खुद से
जीत आगे तू बढ़,
आगे तू
बढ़ ||





