Saturday, 6 October 2018


बांवरा मन |||
परिकल्पनों के पर लिए,
खुद उड़ना सीख जाता है|
यदि बांवरा मन को क्षिचित्ज़ भी दीख जाता है,
फ़िर खुली आँखों से सपने क्यों न देख पाए तू ?
दो कदम आगे बढ़े चार पीछे आये तू,
ये खुद से खुद की लड़ाई और कितनी लम्बी चलेगी ?
तेरी डूबती नैया की केवट कब तू बनेगी ?
देखो स्वप्न खुली आँखों से ,
चीर चट्टानों को आगे तू बढ़,
क्षिचित्ज़ न छु सके तो कम से कम देख पायेगी,
उम्मीदों की गाँठ बांध कर क्षिचित्ज़ को भी छु जाएगी,
खुद की तू पहचान कर , तू सिंह है, दहाड़ कर,
खुद से जीत आगे तू बढ़,
आगे तू बढ़ ||


बांवरा मन ||| परिकल्पनों के पर लिए, खुद उड़ना सीख जाता है| यदि बांवरा मन को क्षिचित्ज़ भी दीख जाता है, फ़िर खुली आँखों से सपने क्यों...